स्पर्श

 

तापमान गिर रहा है

ऐसा अख़बार में देखा था |

रूम-मेट तुलसी तोड़ लाया

बोला हवा सुई सी चुभती है।

मैंने मेज़ पर हाथ रख

काराकोराम से हिंदूकुश तक की चुभन

तुम्हारे नाखूनों में महसूस की।

फिर रूम-मेट से कहा

कि पता नहीं।

 

वह बोला सोल्स्टिसहै – जाड़े वाला – अयनांत।

भूगोल की डिग्री तुलसी रखने के काम आ गई।

छुटपन में, लैंप के नीचे ग्लोब घुमाता था,

अब हाथ सेकने भर काम आ जाता है।

और ग्लोब तो ख़ैर कुचले सपनों के तले

स्मारक स्वरूप सजाया जाता है।

कहता कि फिर भी हम भाग्यशाली हैं,

कि पेरिहीलियन’- सूर्य समीपक है-

पृथ्वी सबसे करीब है सूर्य के।

कहता कि संतुलन देखो -जीवन का जीवन से।

मैंने सूर्य से पृथ्वी तक की दूरी

तुम्हारी कलाइयों की धम्नियों पर नाप डाली।

फिर रूम-मेट से कहा

कि पता नहीं।

 

रूम-मेट चाय ले आया

बोला कि द्रास में झरने जम रहे हैं।

कहता है- नज़ारा दिलकश है,शायराना है-

लम्हा थम जाने की गवाही देता ।

मैंने द्रास के श्वेत अचल झरने

तुम्हारे ख़तों से बहती स्याही में देख डाले।

फिर रूम-मेट से कहा

कि पता नहीं।

 

झिल्ला चुका

अपनी विद्वत्ता की बेकदरी से सृजित

जायज़ गुस्से से सराबोर

रूम के बाहर, कोहरा-ग्रस्त

छोटे आँगन की ओर

जाते हुए एकाएक मेरे मन में

सवाल छोड़ गया तुम्हारे लिए-

हवा चुभती है सुई सी?

हाथ छिपाती हो आस्तीन में?

जीभ अब भी जलती है, ज़हर से सनी?

चाकू ठण्डे लगते हैं, ज़रूरत से ज़्यादा?

बेवजह दिल्ली को दिल्ली प्रमाणित करने

भाफ़ उड़ाती हो मुँह से?

 

मैंने सवालों से सवाल

लिख डाले और कहा

कि मुझे पता है-

ठण्ड तब पता चलती है

जब सोचता हूँ

कि तुम्हारा स्पर्श होगा।

 

 

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